The Gandhi-King Community

For Global Peace with Social Justice in a Sustainable Environment

वर्तमान शिक्षा पद्धति के दोष

प्रा. डॉ. योगेन्द्र यादव

गॉंधीयन स्कालर

गॉंधी रिसर्च फाऊंडेशन जलगॉंव, महाराष्ट्र, भारत

सम्पर्क सूत्र- 09404955338, 09415777229

र्इ-मेल- dr.yadav.yogendra@gandhifoundation.net; dr.yogendragandhi@gmail.com

 

वर्तमान शिक्षा पद्धति के दोष

 

आज पढ़ने-लिखने का मतलब कुर्सी पर बैठ कर हुक्‍म चलाना हो गया है. पढ़े-लिखे लोगों को काम करने में लज्जा का अनुभव होता है. इसलिए समाज की हालत दिनोंदिन खराब होती जा रही है. बुद्धि और हाथ का उपयोग सम्यक रूप से नहीं हो पा रहा है. इसे भारत का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि आज ज्ञान और कर्म के बीच मेलजोल खतम हो गया है. काम करने वाले के पास ज्ञान नही पहुँचता और ज्ञानी काम करना नहीं चाहता है. जो लोग पढ़ार्इ करते हैं, वे ठंड, गर्मी, तथा बरसात की मार नहीं झेल सकते हैं. जरा सा कुछ करना पड़ जाए तो बीमार हो जाते हैं या थक जाते हैं. इसका परिणाम यह हुआ कि आज के शिक्षित लोग गूढ़ अनुभव को समझ नही पाते हैं.

ऊपरी तौर पर देखने पर लगता है कि आजकल चारो ओर शिक्षा का विस्फोट हो रहा है. सभी पढ़-लिख कर नौकरी चाहते हैं, जिसके कारण सरकार के सामने भी विकट समस्या खड़ी हो गर्इ है. आजकल विद्यार्थी, विद्यार्थी न रहे, परीक्षार्थी हो गये हैं. वे साम-दाम-दंड-भेद अपना कर किसी तरह अधिक से अधिक अंक प्राप्त करना चाहते हैं. जिसके कारण वे सच्चा ज्ञान प्राप्त करने से वंचित हो जाते हैं. आजकल हम ज्ञान के बजाय जानकारी बटोर रहे हैं, जिसके कारण भी समस्या उत्पन्न होती जा रही है. शिक्षा देने के नाम पर हम यही जानकारी बॉंटते हैं, यही एक समस्या का एक कारण है. आज इतनी बेकार तालीम दी जा रही है कि विद्यार्थी बगावती होता जा रहा है. इस कारण वह शस्त्र उठाने लगा है. इसी कारण समाज में हिंसा का बोलबाला हो रहा है. ज्ञान न होने के कारण जो जानकारी उसे मिली है, वह चर्चा करने के लिए तो ठीक है, किन्तु रोटी नहीं दे पाती, जिसके कारण बहुत से युवा घोर अवसाद के शिकार होते जा रहे हैं, कभी-कभी अवसाद इतना बढ़ जाता है कि वे आत्महत्या तक कर लेते हैं. आजकल देखने पर तो ऐसा लगता है कि हर युवा किसी न किसी रूप में अवसाद से पीड़ित है.

आज कुकुमुत्ते की तरह विद्यालय-महाविद्यालय खुलते जा रहे हैं. किन्तु वे प्राणहीन मूर्ति के समान हैं, वहॉं थोड़ा अक्षर ज्ञान जरूर मिल जाता है, बाकी ज्ञान के नाम पर ये सभी संस्थायें प्रमाण-पत्र बॉंटने का काम कर रही हैं. पैसा दीजिये, और प्रणाम पत्र लीजिए. गॉंवों की स्थिति तो और बदतर हो चुकी है, आजकल युवा पढ़-लिख कर अपनी खेती में मालिक के रूप में काम नहीं करना चाहता है, बल्कि वह नौकरी करना चाहता है. जहॉं वह हर दिन टूटता है, उसकी शांति भंग होती है, जिस कारण वह अपने परिवार और पड़ोसी की भी शांति भंग करता है, जिस समाज में वह रहता है, वह उसे सुहाता नहीं है. इन महाविद्यालयों से प्रणाम-पत्र लेकर वह रोड पर चप्पलें चटकाता है और सारी व्यवस्था को दोष देता है, उसने इतना भी ज्ञान अर्जित नहीं किया कि उसे समझ में आ जाए कि नौकरी न पाने के पीछे व्यवस्था नहीं, अपितु उसकी अपनी कमियॉं हैं, जिसे वह दूर कर सकता है. किन्तु पता तब चलती हैं, जब अनुभव से कुछ ज्ञान प्राप्त कर पाता है, तब तब बहुत देर हो गर्इ होती है.

महात्मा गॉंधी बार-बार कहते थे कि उन्हें अंग्रेजों से नहीं, अग्रेजियत से घृणा है, तमाम आंदोलन के बावजूद वे अंग्रेजों को भगाने में सफल हो गये किन्तु अंग्रेजियत यहीं रह गर्इ, जिसने युवा पीढ़ी को पूरी तरह अपने आगोश में ले लिया है, वह इसके पीछे इतना दीवाना है, कि उसे कुछ सूझता ही नहीं है. वह अपने माता-पिता के प्रेम को भुला बैठा है. अपनी पत्नी से भी देह तक ही सम्बंध रख पाता है, सारा दिन पैसे-पैसे करता है, उसी के पीछे भागता है. पैसा भी उसको नादान समझ कर उतना ही दूर भागता है. भारतीयता के बिना लक्ष्मी कैसे आ सकती हैं, और टिक सकती हैं. हमारे शास्त्रों में स्पष्ट रूप में कहा गया है कि विद्या विनय देती है, विनय से पात्रता प्राप्त होती है और पात्रता से धन प्राप्त होता है, और  इस प्रकार से धन कमाने के बाद ही वह धन सुख का कारक बनता है, यदि आप अवलोकन करें, तो यह बात पूरी तरह साफ हो जाती है कि इस प्रकार से धनागम कुछ विरले लोगों के यहॉं हो रहा है और सच्चे मायने में वही सुखी हैं. क्‍योंकि उन्हें संतोष धन मिल गया है.

इन महाविद्यालयों से निकलने वाले लोगों ने अपना जीवन स्तर तो ऊँचा उठाया किन्तु वह देश की सभ्यता के बिलकुल विरुद्ध होता है. अज्ञानी होने के कारण वे सुख भोग भी नहीं कर पाते हैं. भौतिक चीजों के पीछे भागते हैं, उन्हें लगता है कि चार पहिये की गाड़ियों, बंगलों, टी.वी. जैसे संसाधनों में सुख है. इस कारण वह अपने जीवन भर की कमार्इ इसी प्रकार सुख की तलाश करता है किन्तु जब उसे यह समझ आती है कि इनमें सुख नहीं है, तब तक बड़ी देर हो जाती है, यह जीवन ही चुक गया होता है. बाल बच्चे भी उसी प्रकार की मृग तृष्णा के पीछ भागते रहते हैं.

आज की तालीम सुविधायुक्‍त जीवन के लिए दी जा रही है. शिक्षा देने-लेने की प्रक्रिया में भी सख का ध्यान रखा जाता है. वे संस्थाये सबससे अधिक चलती है, जिनके पास सबसे अधिक सुविधाये होती हैं. इनके मॉं-बाप भी उनसे शारीरिक परिश्रम का काम नहीं लेते हैं जिसके कारण वे शारीरिक रूप से सबल नहीं हो पाते हैा. कोर्इ काम करना पड़ जाए, तो बहुत जल्दी ही उनका दम भर जाता है. वे बहुत जल्दी थक जाते हैं. हमारे देश प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरु ने कहा था कि आराम हराम है. किन्तु आज हम उसी हराम चीज के पीछ भागते दिखार्इ दे रहे हैं, हमारे समाज में वह सबसे बड़ा आदमी गिना जाता है, जो सबसे ज्यादा आराम करता है. इसी कारण एक दो पुश्त के बाद ही उस परिवार की माली हालत खस्ता हो जाती है.

शिक्षा जीवन जीने की कला है. किन्तु हम कला के नाम पर कुछ नहीं सीखते हैं. जो लोग पढ़ार्इ न सीख कर कोर्इ हुनर सीख लेते हैं, वे हर मामले में काफी आगे देखे जाते हैं. आजकल व्यवसाय में जो लोग आगे हैं, वे इसी प्रकार की कला में पारंगत लोग हैं. आजकल जिस प्रकार की शिक्षा विद्यालयों में दी जा रही है, उसका जीवन से साथ कोर्इ सरोकार नहीं दिखता है. इस कारण थोड़ी सी विपरीत परिस्थिति आने पर वह क्‍या करे, उसे सूझता नहीं है. जिस प्रकार तैरना सीखना हो, तो पानी में उतरना पड़ता है. पहले विद्यार्थी को पानी से जोड़ना होगा, फिर उसे तैरने की कला सिखानी होगी. किन्तु आजकल पानी से जोड़े बिना हवा में सारी बातें हो रही हैं. आज संस्कार की शिक्षा तो पाठ्यक्रम से गायब ही कर दी गर्इ. भारतीय संस्कार देने का मतलब यह हो गया कि वह उसे भोदू बना रहे हैं, उसे वर्तमान के साथ नहीं जोड़ा जा रहा है. इस प्रकार के ज्ञान की क्‍या उपयोगिता है, कह कर उस प्रश्न चिह्न लगा दिया जा रहा है. भारतीयता से दूर ही पाश्चात्य तौर-तरीके ही आधुनिक होने के मापदंड बनते जा रहे हैं. महात्मा गॉंधी यहीं पर उसका विरोध करते हुए नजर आते हैं. किन्तु राष्ट्रपिता की विवशता यही है, कि उसकी बातें तो सभी करते हैं, किन्तु जीवन में उसके आदर्शों और सिद्धांतों को पालन करने की बारी आने पर दूसरे की ओर देखने लगते हैं. हमने संस्कृत भाषा के आधुनिककरण के नाम पर उसको ही विकृत कर डाला. जबकि संस्कृत सीखने से जहॉं लोग एक तरफ अपनी संस्कृति और परम्पराओं से जुड़ते हैं, वहीं उनका आध्यात्मिक विकास भी होता है. जिसके आधार पर भारत बना है, खड़ा है, जो उसकी पहचान है, वही हम आज हम खोते जा रहे हैं. अपनी शिक्षा पद्धति में उसे रखने पर हमें शरम आती है.

इस प्रकार आज हमें अपनी शिक्षा पद्धति के दोषों को निकाल कर अपनी भारतीयता और वास्तविकता को समाहित करने की जरूरत है. जिससे आज जो समस्यायें युवा पीढ़ी के सामने आ रही है, वह न आयें, वह खूब कमाये, और सुख एवं शांति से अपनी जीवन यात्रा तय करें.

 

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