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महात्मा गॉंधी के सच्चे अनुयायी माखनलाल चतुर्वेदी

महात्मा गॉंधी के सच्चे अनुयायी माखनलाल चतुर्वेदी

 

चाह नहीं मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ

चाह नहीं प्रेमी माला में बिध प्यारी को ललचाऊँ

चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि डाला जाऊँ

चाह नहीं देवों के सिर चढ़ूँ, भाग्य पर इठलाऊँ

 

मुझे तोड़ लेना बनमाली

उस पथ पर तुम देना फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने

जिस पथ जाएँ वीर अनेक.

 

इस कविता के रचनाकार एवं प्रमुख साहित्यकार-पत्रकार माखनलाल चतुर्वेदी महात्मा गॉंधी के सच्चे अनुयायी थे. असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेने के कारण उनको अंग्रेजी हुकूमत से सबसे पहले गिरफ्तार होने का सम्मान मिला. उनकी महात्मा गॉंधी के आंदोलन के तौर-तरीकों पर अपार श्रद्धा थी. वे देश प्रेम से भरे हुए थे. ऐसे महान गॉंधी प्रेमी स्वतंत्रता सेनानी एवं साहित्यकार-पत्रकार का जन्म मध्य प्रदेश के होशंगाबाद जिले के बाबर्इ गॉंव में हुआ था. आजादी के लिए वे बहुत चिंतित थे. लगातार इस दिशा में चिंतन-मनन करते रहे. इसी कारण 1908 में हिन्द केसरी में आयोजित राष्ट्रीय आंदोलन और बहिष्कार निबंध प्रतियोगिता में उनको पहला स्थान मिला.

अपने देश और गरिमामयी संस्कृति का वर्णन इस प्रकार किया-

प्यारे भारत देश

गगन-गगन तक तेरा यश फहरा

पवन-पवन तेरा बल गहरा

क्षिति-जल-नभ पर डाल हिंडोले

चरण-चरण संचरण सुनहरा.

ओ ऋषियों के त्वेष

प्यारे भारत देश.

 

वेदों से बलिदानों तक जो होड़ लगी

प्रथम प्रभात किरण से हिम में जोत जगी

उतर पड़ी गंगा खेतों खलिहानों तक

मानो ऑंसू आये बलि मेहमानों तक

सुखकर जग के क्‍लेश

प्यारे भारत देश.

 

तेरे पर्वत शिखर कि नभ को भू के मौन इशारे

तेरे वन जग उठे पवन से हरित इरादे प्यारे

राम-कृष्ण के लीलामय में उठे बुद्ध की वाणी

काबा से कैलाश तलक उमड़ी कविता कल्याणी

बातें करे दिनेश

प्यारे भारत देश.

 

जपी-तपी, सन्यासी, कर्षक कृष्ण रंग में डूबे

हम सब एक, अनेक रूप में, क्‍या उभरे क्‍या उबे

सजग एशिया की सीमा में रहता कैद नहीं

काले गोरे रंग-बिरंगे हममें भेद नहीं

श्रम के भाग्य निवेश

प्यारे भारत देश.

 

वह बज उठी बॉंसुरी यमुना तट से धीरे-धीरे

उठ आर्इ यह भरत-मेदिनी, शीतल मंद समीरे

बोल रहा इतिहास, देश सोये रहस्य है खोल रहा

जय प्रयत्न, जिन पर आंदोलित-जग हॅंस-हॅंस कर बोल रहा,

जय-जय अमित अशेष

प्यारे भारत देश.

 

अपनी जीविका चलाने के लिए वे खंडवा के स्कूल में अध्यापक बने. अप्रैल 1933 में वहीं से प्रकाशित कालूराम गंगराडे की मासिक पत्रिका प्रभा में सम्पादन का काम किया. पत्रकारिता और आंदोलन में पूरी तरह भाग लेने के लिए उन्होंने 1913 में अपनी नौकरी से त्याग पत्र दे दिया. 1916 में आयोजित कांग्रेस अधिवेशन के दौरान माखनलाल चतुर्वेदी अपने साथी गणेश शंकर विद्यार्थी और मैथिली शरण गुप्त के साथ महात्मा गॉंधी से मुलाकात की. उन्होंने प्रभा, कर्मवीर और प्रताप के माध्यम से युवा पीढ़ी को गॉंधीजी के आंदोलनों से जोड़ने का काम किया.

अग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लिखने और स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण प्रभा का प्रकाशन बंद हो गया था.  4 अप्रैल 1925 को जब इसका प्रकाशन फिर शुरू हुआ तो उन्होंने गरीब-अमीर, किसान-मजदूर, ऊँच-नीच, जित-पराजित से आपसी मतभेदों को भुलाने और राष्ट्रीय आंदोलन में भाग लेने का आह्वान किया. उन्होंने आगे कहा कि आप लोग कुछ ऐसे काम कर जाएँ, जिससे आपकी आने वाली संताने आप पर गर्व करें.

उनकी देश प्रेम की आग इस कविता में दिखार्इ पड़ती है-

सूली का पथ सीखा हूँ

सुविधा सदा बचाता आया.

मैं बलि पथ का अंगारा हूँ

जीवन ज्वाल जलाता आया.

 

एक फूँक मेरा अभिमत है

फूँक चलूँ जिसमें से नभ-जल-थल

मैं तो हूँ बलि धारा-पंथी

फेक चुका कब का गंगाजल.

 

इस चढ़ाव पर चढ़ न सकोगे

इस उतार से जा न सकोगे

तो तुम मरने का घर ढूढ़ो

जीवन पथ अपना न सकोगे.

 

श्वेत केश भार्इ होने को

हैं ये श्वेत पुतलियॉं बाकी

आया था इस घर एकाकी

जाने दो मुझको एकाकी.

 

अपना कृपा दान एकत्रित

कर लो, उससे जी बहला लो

युग की होली मॉंग रही है

लाओ उसमें आग लगा दो.

 

मत बोलो वे रस की बातें

रस उसका जिसकी तरुणार्इ

रस उसका जिसने सिर सौंपा,

आग लगी भभूत रमार्इ.

 

 जिस रस में कीड़े पड़ते हों

उस रस पर विष हॅंस-हॅंस डालो

आओ गले लगो, ऐ साजन

रेतो तीर कमान सॅंभालो

 

हाय राष्ट्र मंदिर में जाकर

तुमने पत्थर का प्रभु खोजा

लगे मॉंगने जाकर रक्षा

और स्वर्ण रुपे का बोझा?

 

मैं यह चला पत्थरों पर चढ़

मेरा दिलबर वहीं मिलेगा

फूँक जला दे सोना चॉंदी,

तभी क्रांति का सुमन खिलेगा

 

चट्टानें चिंघाड़े हॅंस-हॅंस,

सागर गरजे मस्ताना सा

प्रलय राग अपना भी उसमें

गूँथ चले ताना-बाना सा

 

बहुत हुर्इ यह ऑंख मिचौली

तुम्हें मुबारक यह बैतरिणी

मैं सॉंसों के डाह उठा कर

पार चला, लेकर युग तरनी.

 

मेरी ऑंखे मातृ-भूमि से

नक्षत्रों तक खीचें रेखा

मेरी पलक-पलक पर गिरता

जग के उथल-पुथल का लेखा.

 

मैं पहला पत्थर मंदिर का

अनजाना पथ जान रहा हूँ

गड़ू नींव में, अपने कंधों पर

मंदिर अनुमान रहा हूँ.

 

मरण और सपनों में

होती है मेरे घर होड़ा-होड़ी

किसकी यह मरजी-नामरजी

किसकी यह कौड़ी-दो-कौड़ी?

अमर राष्ट्र, उद्दंड राष्ट्र, उन्मुक्‍त राष्ट्र

यह मेरी बोली

यह सुधार समझौतों वाली

मुझको भाती नहीं ठिठोली.

 

मैं न सहूँगा मुकुट और

सिंहासन ने वह मूँछ मरोरी

जाने दे सिर लेकर मुझको

ले सॅंभाल यह लोटा-डोरी.

 

1943 में उनकी रचना हिम किरीटिनी को देव पुरस्कार से सम्मानित किया गया. असहयोग आंदोलन के दौरान उन्हें बिलासपुर जेल में बंद किया गया था. वहॉं पर उन्होंने अपनी सबसे प्रसिद्ध कविता पुष्प की अभिलाषा लिखी. इस कविता के माध्यम से उन्होंने सिर्फ अपनी ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण स्वतंत्रतासेनानियों के मनोभावों का चित्रण किया है. आज भी वह कविता सभी युवाओं को एक खास तरह की प्रेरणा देती है.

इस साहित्यकार पत्रकार ने अपना सम्पूर्ण जीवन देश की स्वतंत्रता के लिए अर्पित कर दिया. उनकी हर कृति, हर काम देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित था. उस गॉंधी के सच्चे अनुयायी को गॉंधी के साथ शत-शत नमन.

 

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