For Global Peace with Social Justice in a Sustainable Environment
प्रा. डॉ. योगेन्द्र यादव
गॉंधीयन स्कालर
गॉंधी रिसर्च फाऊंडेशन, जलगॉंव, महाराष्ट्र, भारत
सम्पर्क-सूत्र- 09404955338, 09415777229
र्इ-मेल- dr.yadav.yogendra@gandhifoundation.net; dr;yogendragandhi@gmail.com
नर्इ तालीम- ज्ञान और उद्योग का समन्वय
सन् 1937 में महात्मा गॉंधी ने देश के सामने अपनी नर्इ तालीम की अवधारणा रखी. गॉंधीजी कहते थे कि नर्इ तालीम ही मेरी इस देश को अंतिम और सर्वोत्तम देन है. नर्इ तालीम का मतलब है जो कल थी आज नहीं रहेगी और जो आज है, वह आने वाले कल तक नहीं बचेगी. जैसे नदी का पानी हर पल परिवर्तित होता रहता है, उसी प्रकार इस देश की शिक्षा नये अनुभव के आधार पर हर पल विकसित होती जानी चाहिए. वास्तव में नर्इ तालीम एक दर्शन है, उसकी अपनी एक दृष्टि है. उसके आधार पर ही इस क्षेत्र में काम करना होगा. लोग तालीम को एक ढाचें में ढालते हैं, गॉंधी जी का मानना था कि यदि शिक्षा ढाचें में ढली तो समझो, उसका पतन निश्चित है. जब प्रकृति नित्य परिवर्तित हो रही है, हमारा खुद का जीवन परिवर्तित हो रहा है, तो हमें शिक्षा में भी रोज बदलाव लाना चाहिए.
महात्मा गॉंधी का मानना था कि तत्कालीन समाज में नर्इ तालीम का प्रशिक्षण देना सम्भव ही नहीं है, उसके लिए समाज में परिवर्तन की जरूरत है. क्योंकि नर्इ तालीम आज की सामाजिक संरचना का विरोध करती है. नर्इ तालीम में उद्योग के जरिये शिक्षा दी जाती है. जिससे एक नये समाज का निर्माण होगा. नर्इ तालीम का एक अपना मंत्र है. क्योंकि जिस उद्योग में तकनीक तो होती है, किन्तु उसका मंत्र नहीं होता है, तो वह उद्योग टिकाऊ नहीं होता है. इसका मंत्र यह है कि इसमें शिक्षा प्राप्त करने के लिए शारीरिक श्रम करना आवश्यक है. बिना शारीरिक श्रम के इसका ककहरा भी नहीं शुरु होता है. नर्इ तालीम में शिक्षकों के वेतन का निर्धारण एक समान होना चाहिए. इसमें शारीरिक और बौद्धिक कामों के मूल्य में कोर्इ अंतर नहीं होता है. शारीरिक श्रम करने वाला भी काम में अपने ज्ञान का ही उपयोग करता है. यदि हम एक नया समाज बनाना चाहते हैं, तो इसमें रहने वाले हर किसी को शारीरिक श्रम करना चाहिए. बौद्धिक काम से रोटी की व्यवस्था होती हो, तो भी उसे कामों की उत्तम कोटि में नहीं रखना चाहिए. शरीर का पोषण श्रम से ही सम्भव है. इसलिए शरीर श्रम को नर्इ तालीम का आधार मानना चाहिए. इसमें शरीर श्रम को इतना बल इसलिए दिया जाता है कि विद्यार्थी को अपना हर ज्ञान काम करके ही प्राप्त करना है. नर्इ तालीम देश को आत्मनिर्भर बनाती है, विद्यार्थी को स्वावलंबी बनाती है और साथ में ज्ञान भी देती है. इससे हर दिन नये मूल्यों की स्थापना होती है. यह अधिक धन संग्रह को भी पाप समझती है. यह शारीरिक और मानसिक विकास के बीच संतुलन कायम करती है. इसमें मानवीय पक्ष को अधिक महत्त्व प्रदान किया जाता है. यह हमें यह सिखाती है कि हमें बच्चों को इतिहास, व्याकरण और गणित के माध्यम से जीवन सिखाना है. उन्हें कार्य करने में सक्षम बनाना है. हमें उस क्षेत्र के अनुरूप काम करना है. हर क्षेत्र की आवश्यकता और उपलब्धि के आधार पर शिक्षण कार्य और पद्धति अलग-अलग होगी. किताबों की जरूरत इस पद्धति में भी होगी, किन्तु इसमें जरूरत के मुताबिक पुस्तकें होगी. इसमें रोज प्रयोग करना होगा. हर दिन विद्यार्थी नये-नये अनुभव लेता जाएगा और नये-नये प्रयोग करता जाएगा. इसमें चीजें तोड़ने और बनाने का सिलसिला जारी रखना होता है. इससे एक यूनिक ज्ञान मिलता है. इसमें शिक्षा देने के लिए शिक्षकों भी बच्चे बनना होगा, उन्हें भी अपने अनुभव के आधार पर विद्यार्थी का मार्गदर्शन करना होगा. वह बच्चों के साथ जो काम करेगा, वह उनके रोजमर्रा के जीवन से जुड़ा होगा. बच्चों को सारी शिक्षा उनकी मातृभाषा में देनी होगी, वे स्कूल की प्रार्थना भी अपनी मातृभाषा में ही करेंगे. तभी वे उसका अर्थ समझेंगे, और गहरार्इ से प्रार्थना कर सकेंगे.
यह कोर्इ नया विचार नहीं है. यह सनातन और सत्य पर आधारित है. हम एक विचार धारा को पकड़ चलते हैं किन्तु जैसे ही हमारे ज्ञान में वृद्धि हो जाती है, यानी उसके आगे के सत्य का ज्ञान हो जाता है, हम उसे अपना लेते हैं. उसका यह नयापन ही बच्चों को प्रेरणा देता है. आज गॉंव और शहर की तालीम में अंतर है. दोनों को एक ही प्रकार की सेवा की तालीम मिलनी चाहिए. बहुत लोग इस तालीम को एक पद्धति के रूप में देखते हैं, पर ऐसा सोचना गलत है. यह एक विचार है और उसकी व्यापकता पूरे देश और उसमें निहित समाज को ढके हुए है.
इस तालीम में संयम का बहुत महत्त्व है. यह स्वच्छंदता नहीं सिखाती है. बचपन से ही बच्चे अपनी इंद्रियों को संयम में रखने का अभ्यास होता है. उनकी वाणी में सत्य-निष्ठा होती है. वाणी से अपेक्षित विचार ही निकलते हैं. शील और शैली का फर्क इसमें दिखार्इ देता है. इस शिक्षा का काम स्त्रियों के हाथ में सौंपा जाना चाहिए. इनके हाथ छोटे बच्चों को शिक्षित करना चाहिए. इस शिक्षण का मुख्य उद्देश्य पूरी जनता को उद्योगशील और विचारशील बनाना है. यह एक समुद्र की तरह है. जिसमें सभी विचारों का समावेश हो जाता है. स्त्री-पुरुष के बीच का भेद मिट जाता है.
बहुत से लोगों का मानना है कि बच्चों को थोड़ा शारीरिक काम सिखा दिया, उतना बहुत है. जबकि इसमें ज्ञान और कर्म का भेद ही समाप्त हो जाता है. इसका उद्देश्य लोगों को चौबीस घंटे आनंद देना है. लोग चौबीस घंटे काम करेंगे, नये-नये ज्ञान प्राप्त करेंग और उसके कारण उत्पन्न आनंद से सुख पायेंगे.
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