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प्राथमिक शिक्षा का सर्वोत्तम आधार- मॉं और मातृभाषा

प्रा. डॉ. योगेन्द्र यादव

गॉंधीयन स्कालर

गॉंधी रिसर्च फाऊंडेशन, जलगॉंव, महाराष्ट्र, भारत

सम्पर्क सूत्र- 09404955338, 09415777229

र्इ-मेल-dr.yadav.yogendra@gandhifoundation.net; dr.yogendragandhi@gmail.com

 

प्राथमिक शिक्षा का सर्वोत्तम आधार- मॉं और मातृभाषा

 

खेलने में व्यायाम तो हो जाता है, पर हम व्यायाम कर रहे हैं, ऐसा ध्यान नहीं होता. खेलते समय आस-पास की दुनिया खतम हो जाती है. बच्चे तद्रूप होकर अद्वैत का अनुभव करते हैं. देह की सुध-बुध नहीं रह जाती; भूख, प्यास, थकान, पीड़ा कुछ भी नहीं मालूम पड़ती. यही बात सभी प्रकार की शिक्षाओं पर लागू करनी चाहिए. शिक्षा एक कर्तव्य है, जिससे उत्साह भरी भावना पैदा होनी चाहिए. पर यह भावना आज दिखार्इ नहीं पड़ती. बचपन में बालक जिस सहज पद्धति से सीखता है, उसकी आगे की शिक्षा भी उसी सहज पद्धति से होनी चाहिए. सभी बालकों के मस्तिष्क में सारा तर्क रहता ही है, शिक्षा का इतना ही काम है कि वह उस तर्क शक्ति को जगा दे. सभी कलाएँ, सभी शास्त्र, सभी सद्गुण, बीज रूप में मानव के मस्तिष्क में रहते ही हैं. सिर्फ उस बीज को सिद्ध करने की जरूरत होती है.

शिक्षा में तीन चीजे अवश्य सीखनी चाहिए- योग, उद्योग और सहयोग. योग का अर्थ चित्, मन, इंद्रीय, जबान पर काबू करना है. गीता इस अवस्था को स्थित प्रज्ञ कहती है. आज ऐसी स्थित प्रज्ञ स्थित की आवश्यकता है. क्‍योंकि जितना आक्रमण मानव मस्तिष्क पर आज हो रहा है, उतना पहले कभी नहीं हुआ. यह विज्ञान का जमाना है. इस जमाने में चित्र को शांत, स्थिर और काबू में रखना अत्यंत महत्त्व का काम है. इसमें आध्यात्मि ग्रंथों की मदद हो सकती है. इसके माध्यम से हम पुराने अनुभव को नये ज्ञान के साथ जोड़ सकते हैं.

शिक्षा में दूसरी आवश्यक चीज उद्योग है. शिक्षा का मुख्य कार्य गुण विकास करना है. किन्तु बिना उद्योग के गुण का विकास और उसकी परख सम्भव ही नहीं है. उद्योग में चरखा, तकली, आधुनिक यंत्र, वर्कशाप के साथ खेती जरूर जुड़ी होनी चाहिए. नेहरू जी ने आचार्य विनोबा से कहा था कि जिस राष्ट्र का कुदरत के साथ स्पर्श नहीं रहता, वह क्षीण हो जाता है. उसका क्षय हो जाता है. इस कारण प्रकृति के साथ, खेती के साथ हमारा संबंध होना बहुत आवश्यक है. उदयोग कोर्इ भी हो, सभी का खेती के साथ जुड़ाव होना ही चाहिए.

शिक्षा में तीसरी आवश्यक चीज सहयोग है. इसके अन्तर्गत हमारा सारा समाज और मानस शास्त्र आ जाता है. सहयोग में मानना होगा कि सारी पृथ्वी एक है. इस पर रहने वाले सारे मानव एक हैं. पशु-पक्षी, जीव-जंतुओं एवं वनस्पतियों को भी उसमें सम्मिलित करना होगा. इन सभी की रक्षा होनी चाहिए. आज विज्ञान के जमाने की यह सबसे बड़ी मॉंग है. इसमें सबका सहयोग अपेक्षित है. इसके अन्तर्गत हमें एक-दूसरे से गुण ग्रहण करना चाहिए. क्‍योंकि मनुष्य के गुण ही आत्म स्परूप हैं. इस सिलसिले में माधवदेव कहते हैं कि मनुष्य के चार वर्ण होते हैं- अधम, मध्यम, उत्तम और उत्तमोत्तम. अधम वह है, जो केवल दूसरों के दोष देखता है और उसे ग्रहण करता है. मध्यम गुण-दोष, दोनों को देख कर उसे ग्रहण करता है. उत्तम केवल गुण ग्रहण करता है. और उत्तमोतम अपने अल्प गुणों का विस्तार करता है.

बच्चों को धार्मिक शिक्षा देनी चाहिए, किन्तु आज-कल धर्म का बड़ा ही संकुचित अर्थ किया जाता है. जिसके कारण सभी विचारशील लोगों का मानना है कि पाठशालाओं को धर्म की शिक्षा नहीं देनी चाहिए. वैसे इन गुणों का विकास सत्पुरुषों की संगति से ही होता है, जैसे चरित्र, श्रद्धा, आत्मा का भान आदि. इसलिए शिक्षकों को सत्पुरुषों जैसा जीवन यापन करना चाहिए. जिससे इन गुणों का विकास बच्चों में हो सके. उन्हें संतों के वचनों को कंठस्थ भी कराना चाहिए. सर्व धर्म समभाव का आश्रय लेकर सभी धर्मों के संतों के चरित्र, चित्त विकास की योजना की जानकारी करार्इ जा सकती है.

हृदय से ग्रहण करने वाली भाषा मातृभाषा है, अतः बच्चों को उनकी मातृ भाषा में ही शिक्षा देनी चाहिए. हमारी भाषायें काफी विकसित है और आगे आने वाले समय में और विकसित होती जाएगी. हम सौ साल से अधिक अग्रेजी भाषा के संसर्ग में रहे, फिर भी उस समय भारत में विज्ञान उतना नहीं फैला, जितना बाद में फैला. यदि हम आत्म ज्ञान की बात करें, जिसे हमने अपनी मातृभाषा में ग्रहण और विकास किया. आज उसकी गणना विश्व में श्रेष्ठतम ज्ञान के रूप में की जाती है. मेरा अंग्रेजी का विरोध नही है, किन्तु मैं चाहता हूँ कि अंग्रेजी लादी न जाए. बचपन में अंग्रेजी सिखाना तो बिलकुल गलत है. हमारा यह खयाल है कि बचपन में बच्चे को अंग्रेजी सिखाने से वह बहुत अच्छी अंग्रेजी बोल सकेगा, गलत है. मातृभाषा का व्याकरण और साहित्य जानने वाला छात्र बड़ा होने पर अंग्रेजी भाषा के व्याकरण और साहित्य को बड़ी सहजता के साथ सीख सकता है. अंग्रेजी का भाषा का उपयोग चश्मे के तौर पर करना चाहिए. जैसा कि हम जानते हैं कि चश्में का उपयोग सभी नहीं करते, जिसको जरूरत होती है या कुछ लोग शौकिया इसका उपयोग करते हैं.

आज शिक्षा पर हुकूमत सरकार की चलती है. शिक्षा को लादने की कोशिश हो रही है. चीन और रूस में शिक्षा लादने का प्रयास हुआ, उसका परिणाम सबके सामने हैं. आजकल जनता भी चाहती है कि शिक्षा का इंतजाम सरकार करे. वे सरकार से शिक्षा के इंतजाम की मॉंग भी करते हैं. जिसके कारण सब कुछ गड़बड़ हो रहा है.

आज अपने देश में नर्इ तालीम की जरूरत है. प्राथमिक शिक्षा का भार स्त्रियों के हाथों में सौंप देना चाहिए. इससे बच्चों में व्यहार शक्ति का स्वतः विकास होगा. सभी इस बात से सहमत हैं कि उनको सर्वोत्तम शिक्षा उनकी मॉं से मिली है. ये स्त्रियॉं भी मॉं होती हैं. इस प्रकार उन्हें सर्वोत्तम शिक्षा मिलने लगेगी. इसकी पुष्टि हम इस बात से कर सकते हैं कि जिन बच्चों को मॉं के हाथ का भोजन नसीब नहीं होता, उनकी क्‍या दशा होती है. मॉं के भोजन में भी बहुत बड़ी विद्या होती है. उसमें सिर्फ घी और रोटी नहीं होती, बल्कि उसमें प्रेम भी मिला होता है. भावनाओं का निर्माण स्त्रियों द्वारा ही शक्‍य है. धर्म को टिकाने का काम भी इन्हीं स्त्रियों ने ही किया है. पकड़ कर रखने का स्वभाव भी स्त्रियों में है. बुरी बातों को छोड़ देने और अच्छी बातों को पकड़ कर रखने का विवेक यदि स्त्रियों में जागृत हो जाए तो वे समूची दुनिया का नेतृत्व कर सकती हैं.

इसके अलावा मॉं-बाप को बच्चों में अच्छे संस्कार डालने चाहिए. बच्चों में संस्कार डालने के लिए माता को भक्‍त, पिता को योगी और आचार्य को ज्ञानी होना चाहिए. बच्चों को कहानियॉं सुनना अच्छा लगता है, अतः माता को उन्हें कहानियॉं सुनानी चाहिए. दूसरी बात बच्चों को बनाने वाले  हम होते हैं. इसलिए हमारा इतना ही काम है कि हम उन पर कुसंस्कार न होने दें. यदि इतना करने में हम सफल हुए तो बच्चे उत्तम ही बनेगे. तीसरी बात शिक्षक चाहे जितना प्रयत्न कर लें, मॉं का काम वे नहीं कर सकते हैं. इसलिए बच्चों को उत्तम संस्कार कैसे मिल सकेंगे, इस आज की माताओं को विचार करना चाहिए. आज की माताओं को कहानियॉं कम मालूम होती हैं. इसलिए आजकल की माताओं को संस्कार डालने वाली कहानियों को सीखना चाहिए. यह ध्यान रखना चाहिए कि बच्चों को एक ही धर्म की कहानियॉं नही सुनानी चाहिए, बल्कि सभी धर्मों की प्रेरणास्पद कहानियों से उन्हें शिक्षित करना चाहिए.

 

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